राष्ट्रीय संगोष्ठी रिपोर्ट
भारतीय संत मत : दर्शन एवं सामाजिक उपयोगिता
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12-13 अप्रैल 2024
दयालबाग़ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट (मानित विश्वविद्यालय)
दयालबाग़, आगरा
सहयोग:
भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली
प्रथम दिवस (12 अप्रैल 2024)
दयालबाग़ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, दयालबाग़, आगरा एवं भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में 'भारतीय संत मत: दर्शन एवं सामाजिक उपयोगिता' पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दिनाँक 12-13 अप्रैल 2024 को सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर देश के कोने-कोने से पधारे प्राध्यापकों और शोधार्थियों ने सहभागिता की एवं शोध पत्र का वाचन किया। संगोष्ठी का प्रारम्भ प्रार्थना और विश्विद्यालय गीत के साथ हुआ। तत्पश्चात संगोष्ठी संयोजक डॉ. बृजराज सिंह ने स्वागत वक्तव्य और विषय की प्रस्तावना रखी। उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए हुए केरल से पधारे प्रो. ए. अरविंदाक्षन ने कहा कि 'संत साहित्य वर्तमान समय का प्रासंगिक और महत्वपूर्ण विषय है। इसका लक्ष्य इसमें निहित विश्व मानवता है। वस्तुतः भारतीयता को मैं वैश्विक दृष्टिकोण से देखता हूँ। मीरा और और तुलसी जैसे कवियों ने अपने गुरु के रूप में एक श्रेष्ठ नागरिक और उनके माध्यम से विश्व दृष्टि की पहचान की है। संत साहित्य देशी आधुनिकता का मूल है, जो उनकी समावेशी और पारदर्शी दृष्टि को प्रकट करता है। संत साहित्य मनुष्य ही नहीं, अपितु मनुष्येतर चराचर को समाहित करने की दृष्टि है। आधुनिकता की शुरुआत 1850 से नहीं अपितु इसी परंपरा से होती है। दक्षिण की कवयित्री अक्क महादेवी जो 12वीं शताब्दी की कवयित्री हैं, उनका काव्य मीरा के सदृश है। मीरा का प्रेम जहाँ कृष्ण के प्रति रहा, वहीं अक्क महादेवी का प्रेम शिव के प्रति रहा। इसी प्रकार इस परंपरा में अंडाल का प्रेम रंगनाथ अर्थात विष्णु के प्रति रहा। शिव भक्तों की परम्परा में वासवअण्णा जैसे कई सामाजिक चिंतक और समाज सुधारक भी रहे जिनकी शिव की परिकल्पना में संपूर्ण विश्व समाहित है। संत काव्य सम्पूर्ण भारतीयता का काव्य है और भारतीय संत कवियों द्वारा रचित पदों को अनुवाद के माध्यम से पूरे देश को उपलब्ध कराया जाना चाहिए जिससे उनकी विश्व दृष्टि प्रत्येक भारतीय तक पहुंच सके।' काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष सदानंद साही ने कहा कि ' संत कविता नवीन न होते हुए भी नवीन है।
भारतीय परंपरा में एक आंतरिक शक्ति है जो इसे नया करती रहती है। यही कारण है कि विश्व की सारी सभ्यताओं के नष्ट होने के बावजूद भारतीयता बची हुई है। जिस समय इक्कीसवीं सदी निर्लज्जता और नृशंसता में जी रही है, उस समय नरसी मेहता जैसे कवियों को याद करना बहुत जरूरी हो गया है, क्योंकि वह मानते हैं कि वैष्णव वही है जो दूसरे की पीड़ा को समझे। वास्तव में संत कविता ने ईश्वर के साथ हमारे रिश्ते को परिभाषित किया है। कबीर ने अपनी कविता में बताया कि हमें बहुत प्रेम से ईश्वर ने बुना है। यह मनुष्य शरीर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का उत्पादन नहीं। कश्मीर की ललद्यद, राजस्थान की मीराबाई और दक्षिण की कवयित्री अक्क महादेवी भी इसी परम्परा की कवयित्रियां हैं। संत कविता ने यह भी स्पष्ट किया कि ईश्वर प्रेम का विषय है भय का नहीं। संत कविता ने सामाजिक संरचना का बदलाव किया और श्रम को श्रेष्ठता का पैमाना साबित किया। संत कवि1ता यह भी मानती है की पराधीनता पाप है और पराधीनता का कोई दीन नहीं है। संत कविता हमें निर्भय बनती है।' कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे संस्थान के निदेशक प्रो. सी. पटवर्धन ने कहा कि यह संगोष्ठी संस्थान के अकादमिक विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। संतमत भारतीय दर्शन का मूल है। विश्वविद्यालय का गीत हमारे उद्देश्य को स्पष्ट करता है। हमारा प्राचीन साहित्य और दर्शन विज्ञान का आधार है। यह सही मायने में हमें जीने के तरीके सिखाते हैं। सत्र का संचालन डॉ. मोनिका तिवारी और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. सुमन शर्मा ने किया।
संगोष्ठी के पहले सत्र 'भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास और संत परम्परा' में वक्ता के रूप में बोलते हुए संस्कृत विभाग डीईआई की प्राध्यापिका डॉ. निशीथ गौड़ ने कबीर पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि 'कबीर का साहित्य सागर से गहरा और आकाश से अधिक विस्तार लिए है। कबीर ने सही समय पर आकर मानवता की रक्षा की है। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम धर्मों में आई विकृतियों को भी गिनाया और सच्चे धर्म का पाठ पढ़ाया। उन्होंने सभी वर्ग को झकझोरा और एक नए युग का सूत्रपात किया। वह जटिल से जटिल समस्या को आसानी से हल कर देते हैं।' संस्कृत विभाग की प्राध्यापिका डॉ. रुबीना सक्सेना ने राधास्वामी पंथ पर बातचीत की। उन्होंने कहा- 'स्वामी शिवदयाल जी राधास्वामी मत के संस्थापक रहे। यह मत गुरु की उपस्थिति को महत्वपूर्ण मानता है और समय-समय पर सच्चे गुरु का मार्गदर्शन जरूरी है। डीईआई के विज्ञान संकाय के प्रो. सुखदेव रॉय ने कहा कि 'राधास्वामी मत का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक विकास है। जीवों को दुखी देखकर ही सन्तों ने उनके उद्धार के उद्देश्य से अवतार लिया है। यदि सच्चे सतगुरु मिल जाएं तो उनकी शरण में जाना चाहिए। राधास्वामी मत में संत शिवदयाल जी को ईश्वर का ही अवतार माना है।' उन्होंने कबीर, नानक, पलटू साहब, जगजीवन साहब, संत दूलन दास, तुलसी साहब, पूरन धनी हुजूर स्वामी जी की कविताओं के माध्यम से संतमत पर चर्चा की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पधारे प्रो. संतोष भदौरिया ने कहा कि हमारा इतिहास औपनिवेशिक दौर में लिखा गया इतिहास है और मध्यकाल की कविता, चेतना की कविता होने के कारण प्रकाश की कविता है। संत मत की कविता, मनुष्य से संवाद करती कविता है। यही कारण है कि आचार्य द्विवेदी ने भक्ति कविता को भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास माना है। संत एक नए समाज का ताना-बाना बुन रहे थे। भक्ति कविता में विविधता ही इसका वैशिष्ट्य है। यहाँ दूसरों की पीड़ा समझने का भाव है। संतों के यहाँ किसी प्रकार की घृणा का व्यापार नहीं है। भक्ति आंदोलन, समाज में बदलाव का आंदोलन है। इस साहित्य की प्रासंगिकता केवल भाषा क्षेत्र में नही अपितु पूरे विश्व में है। निराला ने रैदास को अपना अग्रज कवि स्वीकार किया और त्रिलोचन तुलसी को भाषा के मामले में अपना गुरु स्वीकार करते हैं। संत कविता वास्तव में जमीन से उपजी तथा जीवन से निकली हुई कविता है।' इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. ए. अरविंदाक्षन ने सभी वक्ताओं के विषय पर सहमति प्रकट करते हुए उस पर विचार करने की वकालत की। प्रथम सत्र का संचालन और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. नमस्या ने किया।
संगोष्ठी का दूसरा सत्र 'भारतीय सन्त मत:मानुष प्रेम एवं जीवन मूल्य' शीर्षक से रहा। इस सत्र की प्रथम वक्ता के रूप में उच्च तिब्बती संस्थान, वाराणसी से डॉ. ज्योति सिंह ने विवेकानंद पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि 'विवेकानंद को विवेकानंद बनाने का काम रामकृष्ण परमहंस ने किया। वह विवेकानंद को एक यंत्र के रूप में तैयार करते हैं। रामकृष्ण के कारण ही वह सामाजिक चुनौतियों से संघर्ष कर सके, उन्होंने ही उन्हें हर जीव के भीतर शिव को देखने की वकालत की।' मथुरा से पधारे डॉ. विजय शर्मा ने कबीर पर चर्चा करते हुए कहा कि 'संत कविता में भय का बिल्कुल स्थान नहीं है। यह भय न तो सत्ता का है और न ही समाज का। सामाजिक रूप से रूढ़ियों का निष्कासन और सत्ता से निर्भय होकर ही उपयोगी साहित्य की रचना की जा सकती है। कबीर का साहित्य अपने समय के आगे का साहित्य है। उन्होंने धर्म की आवश्यकता को स्वीकारते हुए धर्म की रूढ़ियों को दूर करने का प्रयास किया। वे न केवल कविता रचते थे, अपितु कविता को जीते भी थे। वह स्वयं श्रम भी करते थे। मैं जोर देकर कहता हूँ कि कविताएं कबीर का पेशा या राजधर्म नहीं था।' सत्र के अगले वक्त के रूप में डीईआई की डॉक्टर आरती नय्यर ने हाथरस वाले संत तुलसी साहब पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि 'आप पुणे के महाराज के बड़े बेटे थे। तुलसी साहब ने 'साहिब पंथ' का प्रवर्तन किया। वह ज्ञान प्राप्ति के लिए अलग-अलग नगरों, शहरों और जंगलों में घूमते रहे। तुलसी साहब के आशीर्वाद से ही राधा स्वामी पंथ के प्रवर्तक संत शिवदयाल जी महाराज का जन्म हुआ। घट रामायण तुलसी साहब की प्रमुख रचना है और इस रचना का उद्देश्य संतमत के मूल से सभी का परिचय कराना है। कार्यक्रम के सत्र को आगे बढ़ाते हुए अर्थशास्त्र विभाग की प्राध्यापिका डॉ. रूपाली सत्संगी ने कहा कि 'दयालबाग में मूल्य और अनुशासन को जिया जाता है। राधास्वामी मत प्रेम, सेवा और लोकाचार को बढ़ावा देता है। यहाँ मालिकाना हक पर विशेष प्रतिबंध है क्योंकि यही झगड़ों का प्रमुख कारण है।' डॉ. रूपाली ने दयालबाग की कार्य प्रणाली पर विस्तार से चर्चा की। सत्र की अध्यक्षता कर रहे अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ के प्रोफेसर सर्वेश सिंह ने कहा कि 'सन्त अपने समय के शोधार्थी और एकांत दर्शी रहे हैं। संत कविता विचारों द्वारा संघर्ष करती नजर आती है। वह सही मायने में मनुष्य से ईश्वर का परिचय कराती है। उन्होंने सभी वक्ताओं को धन्यवाद देते हुए उनके वक्तव्य का समर्थन किया। इस सत्र का संचालन डॉ. नीलम यादव तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ बृजराज सिंह ने किया।
संगोष्ठी के प्रथम दिवस का समापन प्रोफेसर रीता देव द्वारा शास्त्रीय गायन के साथ हुआ।
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द्वितीय दिवस (13 अप्रैल 2024)
संगोष्ठी का तृतीय सत्र 'स्त्री सन्तों का योगदान' विषय पर रहा। इस सत्र की प्रथम वक्ता के रूप में बोलते हुए डा. रंजना पांडेय ने कहा 'सन्त का स्वभाव शांत होता है। दक्षिण भारत की कवयित्री मीरा को दक्षिण की मीरा कहा जाता है। वह श्री रंगनाथ की उपासक थीं। कन्नड़ साहित्य की वह पहली सन्त कवयित्री थी जिन्होंने पारलौकिकता और लौकिकता को एक साथ अपनाया। वह शिव से विवाह करना चाहती थीं। यूँ कहें कि वह शिवमय हो जाना चाहती थीं। वह शिव में लीन हो जाने की बात कहती हैं। उनमें भक्ति, विचार और दर्शन का मेल है। कश्मीर की ललद्यद में सर्वाधिक योग और दर्शन दिखाई देता है। वह कश्मीरी लोकभाषा में अपने शब्दों को वाणी देती हैं। वह ऐसी कवयित्री हैं जो वाद विवाद और संवाद के लिए जानी जाती हैं। वह अद्वैतवाद की स्थापना की पक्षधर रही हैं। इस परम्परा में मीराबाई को भी कृष्ण के प्रति समर्पित कवयित्री के रूप में देखा जा सकता है। वह समाज में व्याप्त रूढ़ियों और गलत परम्पराओं का डटकर विरोध किया। उनके लिए कृष्ण का स्वरूप, लोकरक्षक का स्वरूप है। भक्तिकाल में अनेक धाराएं चली उनमें संत परम्परा सबसे महत्वपूर्ण रही। यह जागरण की अवस्था है और तन्द्रा टूटने की अवस्था है।' दूसरी वक्ता के रूप में महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से पधारी डॉ अवंतिका शुक्ल ने कहा- 'सन्त परम्परा में पुरूषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी कन्धे से कन्धा मिलाया है। स्त्री सन्तों ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं के खिलाफ संघर्ष किया। मीरा का ठेठ स्वभाव उन्हें एक अलग दिशा में खड़ा करता है। मीरा ने किसी पंथ विशेष को नहीं अपनाया, वह भक्ति के एक सहज रूप को लेकर चलीं। कश्मीरी परम्परा की कवयित्री ललद्यद ने निजी जीवन में बहुत संघर्ष किया जिसे वहाँ के लोग आज भी याद करते हैं। स्त्री सन्तो का अधिकांश जीवन संघर्षपूर्ण ही रहा। उन्होंने इज्जत और शर्मिंदगी के कांसेप्ट को बदला है। इसी परम्परा में सहजोबाई को याद किया जा सकता है जिन्होंने अपनी रचनाओं में जीवन दर्शन, प्रेम और गुरु महिमा पर बातचीत की है। भक्तिकाल की कवयित्रियों ने खुद को स्त्री और ईश्वर को पुरुष के रूप में दिखाया। इसी प्रकार दादू और कबीर ने स्वयं भी खुद को ईश्वर की स्त्री के रूप में माना। यह भाव स्त्री और पुरुष में साम्य दिखाता है।' सत्र की तीसरी वक्ता के रूप में डॉ नसरीन बेगम ने 'हिंदुस्तान में सूफी मत और स्त्री' विषय पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा- 'मोहब्बत रहमत के दरवाजे खोलती है। जो उससे जुड़ जाता है वह स्वयं भी बुलंद हो जाता है। सूफी नफरत की बात नहीं करते। जिस्म की तरबियत माता पिता और दिमाग की तरबियत शिक्षक और रूह की तरबियत सूफी संत करते हैं। वह दुनिया को संवारने का हौसला देते हैं। उन्होंने दिलों को संवारा है और दुनिया का रुख बदलकर रख दिया है। सूफियों के बारे में बात करते हुए पहली नजर अमीर खुसरो पर जाती है, जिन्होंने ग्यारह बादशाहों का राज्य देखा और सात बादशाहों के दरबार में रहे। उन्होंने अपने मुर्शिद हज़रत निजामुद्दीन की मृत्यु की खबर पर अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। खुसरो ने प्रेम को अपना सब कुछ माना है। इनमें ख्वाजा दाता शकर गंज, ख्वाजा वारिश शाह आदि प्रमुख नाम है। इस परम्परा में स्त्री सन्तो के नाम ज्यादा तो नहीं मिलते किन्तु उनमें राबिया बसवी का नाम महत्वपूर्ण है। तसव्वुफ में उनका नाम बहुत ऊँचा है। इन्ही सन्त कवयित्रियों में हज़रत बाबा जान रहीं जिनका जन्म बलूचिस्तान में हुआ किन्तु आगे का समय भारत में ही बिताया। आज भी पुणे में उनका स्थान बाबा जान चौक के नाम से जाना जाता है। बीबी जमाल खातून इसी परम्परा की सन्त रहीं। वह लोगों को खाना खिलाने का शौक रखती हैं। महमूदा खातून, फिज़्ज़ा खातून, आयशा के नाम इन सूफी परम्परा की महत्वपूर्ण कवयित्रियाँ रही हैं। इसी परम्परा की सन्त हजरत बीवी फातिमा नाम की सूफी सन्त का कर्म क्षेत्र दिल्ली में रहा। वह पंजाब से दिल्ली आई थीं और अपनी पूरी ज़िंदगी मानवता की सेवा में समर्पित की। उन्होंने साबित किया कि सेवा के लिए दौलत से अधिक दिल में पीड़ा की ज्यादा जरूरत है।' कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं नई दिल्ली से पधारी डॉ. दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा ने कहा कि 'स्त्री सन्तों का इतिहास अभी काफी हद तक अदृश्य रहा है। हमारा इतिहास स्वाभाविक रूप से केवल नारियों का नहीं, लेकिन नारियों का भी इतिहास रहा है। हमारे इतिहास में पितृसत्तात्मक समाज हजारों वर्षों से देखा गया। अक्क महादेवी और ललद्यद के समय में भी समाज में असुरक्षा का भाव था किंतु उन्होंने विद्रोह कर इसे दूर करने की कोशिश की। आज के समय में सन्त कवयित्रियों का विद्रोह आधुनिक स्त्रियों को अपने विवेक से गलत का विरोध करने की प्रेरणा देता है।' सत्र का संचालन डॉ. मनु शर्मा ने किया।
संगोष्ठी का चतुर्थ सत्र 'सामाजिक न्याय की अवधारणा और सन्त मत' विषय रहा। यह सत्र का अंतिम सत्र रहा। इसके प्रथम वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रयागराज से पधारे डॉ प्रेमशंकर ने कहा कि 'संतमत का सम्बंध किसी धर्म विशेष से नहीं रहा। उनका मूल श्रम, समाज और जीवन शैली में छिपा है। सन्त मत में श्रम को विशेष महत्व दिया गया है। दूसरी परम्परा की खोज में तुलसी के सामने कबीर की एकनई परम्परा की स्थापना हेतु हजारी प्रसाद द्विवेदी के योगदान को रेखांकित किया गया है। संतमत की परम्परा समन्वय की पोषक परम्परा है। दयालबाग, सन्त परम्परा को जमीन पर जीता है जहाँ मूल्यपरक शिक्षा प्रदान की जाती है।' सत्र के दूसरे वक्ता के रूप में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पधारे डॉ. मलखान सिंह ने कहा ' जिस समय समाज पीड़ाओं के दौर से गुजर रहा है उस समय सन्तों पर बातचीत इस संगोष्ठी को और महत्वपूर्ण बनाता है। सन्त साहित्य मूल रूप से सामाजिक न्याय के आधार पर खड़ा है। इसके केंद्र में मनुष्यता की भावना है। सन्त साहित्य प्रेम, न्याय और ज्ञान पर बल देता है। सन्त साहित्य शास्त्र, समाज की आड़ में जन्मे भय का विरोध करते हैं। वर्चस्ववादी आडम्बर को बढ़ावा देते हैं। सन्त वास्तविक स्थिति को सामने लाकर समाज के सामने जन्मे प्रश्नों को रखते हैं। उनके भीतर परम्परा को बदलने की छटपटाहट
दिखती है। सन्तो ने ज्ञान कर्म और प्रेम पर बल दिया। सन्त साहित्य की परम्परा प्रतिरोध करना सिखाती है और जीवन जीने की कला सिखाती है। उन्होंने धर्म के कल्याणकारी, प्रतिरोधी और न्यायपरक स्वरूप को स्वीकारा है। भक्ति आंदोलन लोक शास्त्र के समन्वय का परिणाम है। मूल्यविहीन शिक्षा मनुष्य को चतुर और शैतान बनाती है, जिसे सन्त बखूबी जानते थे। उन्होंने अपने साहित्य में मूल्यपरक शिक्षा को स्थान दिया है।' अगले वक्ता के रूप में राजस्थान विश्वविद्यालय के डा. विशाल विक्रम ने कहा 'लोक और शास्त्र को अलग करके नहीं देखा जा सकता। एक समय में लोक के अनुभव ही आगे चलकर शास्त्र बने। सन्तों ने शास्त्रों में मौजूद तत्वों को त्यागा नहीं, अपितु अपने विवेक से वहाँ से चीजों को ग्रहण किया है। आचार्य द्विवेदी ने 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में लोक और शास्त्र की इस परम्परा को बेहतर ढंग से समझाया है। शास्त्र और लोक को इतिहासबोध के साथ देखने की समुचित दृष्टि होनी चाहिए। सन्त कविता के प्रतिनिधि के रूप में कबीर की कविता में प्रतिरोध का स्वर देखा जा सकता है। उनके यहाँ जातिवाद का विरोध है। उन्होंने यह माना कि शास्त्र किसी की बपौती नहीं है। जिनका श्रम प्रबल होगा, उनकी बुद्धि भी प्रबल होगी। सन्तमत पाखण्ड को खण्ड-खण्ड करने की दृष्टि प्रदान करता है।' कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे, नई दिल्ली से पधारे प्रो. बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा 'साहित्य की मूल चिंता न्याय की चिंता है। जो अन्याय के लिए 'न' नहीं बोल सकता, वह कवि नहीं है। अकल्याणकारी
विचार अहिंसा का आह्वान है। साहित्य का नायक वही हो सकता है जो न्याय के पथ
से विचलित न हो। क्रौंच का मारा जाना एक घटना रही किन्तु लय में उसका निकलना और न्यायार्थ उसके प्रति करुणा उत्पन्न होना ही वाल्मीकि को कवि बनाता है। कबीर कहते हैं कि जिस दिन हिन्दू और मुसलमान एक साथ रहेंगे, मैं उसी दिन ठीक ढंग से भोजन कर पाऊँगा, इसीलिए वह हिन्दू मुस्लिम एकता के पुरजोर समर्थक भी थे।' अंतिम सत्र का संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन संस्कृत विभाग डीईआई के संस्कृत विभाग की प्राध्यापिका डॉ. निशीथ गौड़ ने किया।
संगोष्ठी के समापन सत्र के अध्यक्ष रूप में प्रो. आनंद मोहन, कुलसचिव डीईआई तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. सदानंद शाही, पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मंचस्थ रहे। संगोष्ठी के अंतिम सत्र का संचालन करते हुए डा. बृजराज सिंह ने बताया कि संगोष्ठी में कुल तीस से अधिक विद्वानों ने भाग लिया तथा तथा पचास से अधिक शोध पत्र पढ़े गए। इस मौके पर बोलते हुए प्रो. शाही ने कहा कि 'कबीर लोक और शास्त्र को साथ लेकर चलते हैं। वह किसी एक का विरोध नहीं करते, बल्कि उसके पिछलग्गूपन का विरोध करते हैं। शास्त्र की व्याख्या बार-बार हो सकती है, तथा समय सापेक्ष हो सकती है। प्रत्येक परम्परा को अपना आत्मालोचना करना चाहिए। सन्त कविता का ताना-बाना अखिल भारतीय है और इसमें सबकी हिस्सेदारी है। सन्तों की कविता, लोक की कविता है। सन्त गरीबदास द्वारा रचित 'रोटी की आरती' में लोक का चिंतन स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। अंग्रेजी कवि शैली लिखते हैं कि कवि अपने समाज का अनपहचाना विधि निर्माता होता है। रैदास की कविता 'बेगमपुरा' में सन्त साहित्य खुलकर प्रकट होता है। पराधीनता को सन्त कवि मूल रूप से पाप मानते हैं। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के मूल में सन्तों की साधना और न्याय है। संविधान निर्माण के मुख्य सूत्र कहीं न कहीं संतों की बानियों में मिल जाते हैं। इसे सन्त हजारों वर्षों से गढ़ रहे थे। सन्त कविता बताती है कि परपीड़ा से अधम कोई भी काम नहीं है। सभी के बीच सामंजस्य का संदेश यह कविता देती है और मनुष्य के बीच मनुष्य का विवेक जगाती है। साहित्य वही है जो सबका हित करे। आज का समय विश्व के लिए भयावह है। ऐसे समय में जब भारत को अपनी विशिष्टता दिखानी है तब इसे करुणा की पहचान करनी होगी। आज के दौर में भारतीयता को बचाये रखने की जरूरत है और सन्त कविता इसमें महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है।' अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए कुलसचिव प्रो. आनंद मोहन ने आये हुए अतिथियों के प्रति आभार जताया और यह इच्छा प्रकट की कि ऐसी संगोष्ठियां लगातार होती रहनी चाहिए।
अंतिम रूप से धन्यवाद ज्ञापन संगोष्ठी के संयोजक डॉ. बृजराज सिंह ने किया।
प्रधान संरक्षक प्रो सी पटवर्धन निदेशक दयालबाग़ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट
संरक्षक प्रो आनंद मोहन कुलसचिव दयालबाग़ एजुकेशनल इंस्टीट्यूट
सहयोग डॉ रंजना पाण्डेय डॉ मोनिका तिवारी
संयोजक डॉ बृजराज सिंह असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हिन्दी विभाग
विशेष सहयोग शरद कुमार, अंजलि यादव, पूनम यादव, सुखवेन्द्र कुमार, प्रणव मिश्र
रिपोर्ट अमन वर्मा (दीप अमन) |
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